केदारनाथ ही नहीं बल्कि उत्तराखंड में हैं ये चार और केदार मंदिर, जानें यहां

उत्तराखंड में शिव कण-कण में पूजे जाते हैं। कहीं उनका मान दामाद की तरह किया जाता है तो कहीं जीजा की तरह उनसे हंसी ठिठोली भी की जाती है। भगवान शिव का सबसे पसंदीदा स्थान कैलाश के बाद केदारनाथ धाम को माना जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि उत्तराखंड में सिर्फ एक ही केदार नहीं हैं। बल्कि यहां पांच शिव मंदिर हैं जिन्हें पंच केदार कहा जाता है।

उत्तराखंड में हैं ये चार और केदार मंदिर

आज हम आपको उन्हीं पंच केदारों के बारे में बताने जा रहे हैं। लेकिन इससे पहले आपको इन केदार धामों के लिए कही जाने वाली कहानी सुनाते हैं। किंवदंतियों के मुताबिक महाभारत युद्ध के बाद जब पांडव पर गोत्र हत्या का पाप लग गया था तो पश्चाताप के लिए उन्होंने अपना राज पाठ छोड़ दिया और केदारनाथ की तरफ चल पड़े। लेकिन शिव पांडवों से काफी नाराज थे और उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। जिस वजह से जब पांडव केदार की तरफ पहुंचे तो भगवान शिव ने उनसे दूर रहने के लिए बैल का रूप धारण कर लिया और पहले से मौजूद पशुओं के बीच जाकर छिपने की कोशिश करने लगे। लेकिन भीम ने उन्हें पहचान लिया जैसे ही भगवान शिव को इस बात का अहसास हुआ तो वो धरती में समाने लगे। जिसे देखकर भीम ने तुरंत उस बैल रूपी शिव की पीठ का पिछला हिस्सा पकड़ लिया और वह हिस्सा धरती के ऊपर ही रह गया। जिसके आज केदारनाथ में द्वादश ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है।

बैल का पिछला हिस्सा तो केदारनाथ में रह गया और उसके बाकी चार भाग, मुख- रुद्रनाथ में, नाभि- मध्यमहेश्वर में, भुजाएं– तुंगनाथ और जटाएं- कपिलेश्वर, में प्रकट हुई। तभी से ये स्थान पंचकेदार के रूप में जाने जाना लगा। फिर पांडवों ने इन पांचों स्थानों पर मंदिर बनवाए। पांडवों की निष्ठा देखकर, भगवान् शिव खुश हो गए और भगवान शिव ने दर्शन देकर पांचों भाइयों को गोत्र हत्या के पाप से मुक्त कर दिया। केदारनाथ इन सब धामों में सबसे अहम है। इसके अलावा केदारनाथ के लिए एक और किवदंती कही जाती है कि यहां नर नारायण नाम के दो ऋषियों ने भगवान शिव का तप किया था। जिससे खुश होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इसी केदार भूमि में निवास करने का वचन भी दिया।

बाबा केदार की ये भूमि काफी चमत्कारों से भरी हुई है फिर चाहे वो आपदा में मंदिर का सुरक्षित बच जाना हो या फिर मंदिर का 400 सालों तक बर्फ में दबे रहना। शायद इसी लिए शिव भक्तों के दिल में केदारनाथ के लिए अलग ही स्थान है। चलिए अब आपको उत्तराखंड में मौजूद चार और केदार मंदिरों के बारे में बताते हैं जिन्में सबसे पहला है तुंगनाथ मंदिर

तुंगनाथ मंदिर

विश्व में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित शिव का धाम तुंगनाथ रुद्रप्रयाग जिले में समुद्र की सतह से 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। तुंगनाथ में भगवान शिव के साथ-साथ भगवती, उमा देवी और ग्यारह लघुदेवियाँ भी पूजी जाती हैं। इन देवियों को स्थानीय भाषा में द्यूलियाँ भी कहा जाता है। माघ के महीने में तुंगनाथ का डोला या दिवारा निकाला जाता है जो पंचकोटि गांवो का फेरा लगाता है। इस डोले के साथ गाजे-बाजे और निसाण भी होते हैं।

पौराणिक मान्यता के अनुसार तुंगनाथ में भगवान शिव के बाहु यानी भुजा की पूजा की जाती है। ऐसी मान्यता है कि रावण ने इसी स्थान पर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया था और बदले में भोले बाबा ने उसे अतुलनीय भुजाबल दिया था। इस घटना के प्रतीक के रूप में यहां पर रावणशिला और रावण मठ भी हैं। तुंगनाथ से थोड़ी दूर करीब दो सौ मीटर की ऊंचाई वाली एक दूसरी पहाड़ी पर चंद्रशिला है। कहा जाता है कि यहां भगवान राम ने यहां तप किया था। शीतकाल में यहां की मूर्तियों को सांकेतिक रूप से रुद्रप्रयाग जिले के ही ऊखीमठ, मक्कूनाथ में स्थापित किया जाता है और वहीं उनकी पूजा अर्चना की जाती है। चलिए अब बात करते हैं एक और केदार रूद्रनाथ की

रुद्रनाथ मंदिर

भगवान शिव के सबसे ऊंचे धाम के बारे में तो आपने जान लिया अब बात करते हैं उस धाम की जहां की जाती है शिव के एकानन रूप की पूजा उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग जिले में रुद्रनाथ धाम स्थापित है जिसे चौथा केदार कहा जाता है। रुद्रनाथ में शिव के एकानन रूप यानी मुख की पूजा-अर्चना की जाती है। मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण महाभारत के समय में पांडवों के द्वारा किया गया था। मंदिर के गर्भ गृह में भगवान शिव की पूजा नील कंठ रूप में की जाती है। कहते हैं यहां भगवान शिव के बैल रुपी अवतार का मुख प्रकट हुआ था इसलिए इस शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग के नाम से भी जाना जाता है।

इस स्वयंभू शिवलिंग की आकृति मुख जैसी है जिसकी गर्दन टेढ़ी है। यह शिवलिंग एक प्राकृतिक शिवलिंग है जिसकी गहराई का आज तक पता नही लगाया जा सका है। मंदिर के आसपास कई छोटे मंदिर भी स्थापित हैं। जो पांचो पांडवों, माता कुंती और द्रौपदी को समर्पित हैं । अब आपको उस जगह से रूबरू करवाते हैं जहां भगवान शिव और माता पार्वती ने मनाई थी मधुचंद्र रात

मध्यमहेश्वर

मध्यमहेश्वर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में ऊखीमठ के पास स्थित है। यहां भगवान शिव की पूजा नाभि लिंगम के रुप में की जाती है कुछ किंवदंतियां तो ये भी कहती हैं कि यहां की सुन्दरता में मुग्द्ध होकर शिव पार्वती ने अपनी मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मदमहेश्वर के बारे में ये भी कहा जाता है कि यहां की पवित्र जल की चंद बूंदें ही मोक्ष के लिए काफी हैं।

कहा जाता है जो भी इंसान भक्ति या बिना भक्ति के भी मदमहेश्वर के माहात्म्य को सुनता या पढ़ता है। उसे बिना कोई और चीज करे शिव के धाम की प्राप्ति हो जाती है। इसी के साथ कोई भी अगर यहां पिंडदान करता है तो उसकी 100 पुश्तें तक तर जाती हैं। अब आपको रूबरू कराते हैं भगवान शिव के पांचवे केदार की जहां शिव की जटा की पूजा की जाती है।

कल्पेश्वर महादेव मंदिर

कल्पेश्वर महादेव मंदिर गढ़वाल के चमोली में स्थित है। कल्पगंगा घाटी में बसे इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता हैं की ये मंदिर पांड़वों ने बनवाया था और यहां भगवान शिव की जटा उत्पन्न हुई थी। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक यही वो जगह है जहां पर स्थित कुंड से शिव ने समुद्र मंथन के लिए जल दिया था जिससे चौदह रत्न उत्पन्न हुए थे। किंवदंतीयों के मुताबिक ये भी कहा जाता है की यहां दुर्वासा ऋषि ने कल्पवृक्ष के नीचे बैठ के तप किया था। जिस वजह से इस जगह को कल्पेश्वर कहा जाने लगा। कल्पेश्वर को कल्पनाथ भी कहा जाता है यहां शिव कि जटा की पूजा विशाल चट्टान के नीचे एक छोटी सी गुफा में की जाती है।