सदियों से क्यों विवादों में घिरा है कुमाऊं में मनाया जाने वाला खतडुवा त्यौहार, इस आर्टिकल में जानें सब कुछ

भैलो रे भैलो, भैलो खतडु़वा, भाग खतडु धारा धार गाय की जित खतडु की हार आपने ये पंक्तियां तो कहीं ना कहीं सुनी ही होंगी. अगर आप इन पंक्तियों से रूबरू नहीं हैं. तो आपको बता दें की ये पंक्तियां उत्तराखंड के एक त्यौहार खतडुआ मनाते वक्त कही जाती है. खतडुआ उत्तराखंड का एक ऐसा त्यौहार है. जो दशकों से विवादों में घिरा रहा है. कुछ लोगों का मानना है की इस त्यौहार की जड़े गढ़वाल और कुमाऊं की लड़ाई से जुड़ी हुई है और कुछ लोग इसे ऋतु परिवर्तन के जश्न के रुप में देखते हैं. लेकिन क्या सच में सालों पहले शुरू हुआ ये त्यौहार कुमाऊं और गढ़वाल के बीच की लड़ाई का जश्न है, या फिर ऋतु परिवर्तन का एक आनंदमयी उत्सव. जानते हैं इस आर्टिकल में.

खतडुआ त्यौहार कैसे मानते हैं?

बता दें खतडुआ कुमाऊं क्षेत्र में शरद ऋतु की पहली सांझ, यानि 17 सितंबर के आसपास, मनाया जाता है. खतडुआ एक पुतला होता है, जिसे गांव-कस्बों के हर परिवार द्वारा मक्के के डंठल या भांग के पौधे से बनाया जाता है. खतडुवे की शाम उत्तराखंड के हर गांव और कस्बे के घरों में लोग छिलकों की मशालें जलाते हैं. जिन्हें लेकर ये लोग लेकर अपने-अपने घरों से गौशाला की ओर जाते हैं और बाहर निकलते समय सब मिलकर बोलते हैं. भेल्लो जी भेल्लो भेल्लो खतडुवा, “भाग खतडुआ, धारा-धार, गाय की जीत, खतडुआ की हार!” ,गै मेरी स्योल खतड़ पड़ो भ्योल फिर इन मशालों से रास्ते पर बनाए गए खतडुए के पुतले को जलाया जाता है.

लोग इस जलते हुए खतडुवे के चारों ओर नाचते हैं और इसे छड़ियों भी मारते हैं. जब खतडुआ पूरी तरह जल जाता है फिर इसे लंबी कूद लगाकर लांघा जाता है. इसके बाद गांव घरों के सभी लोग खीरे के बीच में से छोटे छोटे टुकड़े कर आपस में प्रसाद की तरह बांट लेते हैं. अब कुछ-कुछ इलाकों में इस त्यौहार में खतडुए के साथ एक बुढ़ा और बूढ़ी भी शामिल हो जाते हैं. बता दें की ये बूढ़ा-बूढ़ी को बच्चे खतडुए के तीन चार दिन पहले सूखी घास को मोडकर बनाते हैं और कांस के फूलों से सजाकर इसे गोबर के ढेर में रोप देते हैं. फिर खतडुए के दिन बूढ़े को उखाड़कर घर के चारों ओर घुमाकर छत में फेंक दिया जाता है और बूढ़ी को खतडुवे के साथ जला दिया जाता है. पूर्वी कुमाऊं में इसे गैत्यार भी कहा जाता है और कुमाऊं के हर क्षेत्र में इसे लग अलग तरीके से मनाया जाता है.

खतडुवा त्यौहार की परंपराओं को समझने के बाद, अब आते हैं इस त्यौहार के विवादों पर. खतडुवा त्यौहार के विवादों के पीछे कई कहानियाँ छिपी हुई हैं. कुछ लोगों का मानना है कि यह त्यौहार कुमाऊं और गढ़वाल के बीच हुए युद्ध में जीत आ उत्सव है. अब इससे भी दो कहानीयां निकलती है. कुछ लोग कहते हैं की कुमाऊं और गढ़वाल के इस युद्ध में कुमाऊं की सेना का नेतृत्व गौड़ा सिंह या गौड़ा जाति के किसी वीर क्षत्रिय ने किया था. यह वीर योद्धा अपनी वीरता और रणकौशल से गढ़वाल की सेना के सेनापति खतड़ सिंह को मार गिराने में सफल हुआ, जिससे गढ़वाल की सेना को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा।

इस विजय ने कुमाऊं की सेना के हौसले को बुलंद किया और इस युद्ध को एक ऐतिहासिक घटना बना दिया, जिसे खतडुवा त्यौहार के रूप में याद किया जाता है. ऐसा ही कुछ कुमाऊं के प्रसिद्ध इतिहासकार बद्रीदत्त पांडेय अपनी किताब उत्तराखंड का इतिहास में भी लिखते हैं की गढ़वाल विजय की यादगार में ये उत्सव मानाया जाता है कहा जाता है सरदार खतड़सिंह गढ़वाल के सेनापति थे जो मारे गए. वहीं कुछ लोग मानते हैं कि ये युद्ध चम्पावत के राजा रुद्रचंद के पुत्र लक्ष्मी चंद, जिन्हें कुमाऊं में “भीगी बिल्ली” के नाम से भी जाना जाता था, और गढ़वाल के राजा माश शाह के बीच सन 1565 में हुआ था. इस युद्ध में काफी बार पराजित होने के बाद लक्ष्मी चंद ने जीत हासिल की थी.

इतिहास के पन्नों पर डालें एक नजर

अब आते हैं इस कहानी के खंडन पर. सबसे पहले सबसे पहले, अटकिन्सन अपनी किताब हिमालयन गजेटियर के भाग 2 में लिखते हैं कि लोक मान्यता के अनुसार, गौड़ा द्वारा गढ़वाली सेना के खिलाफ उसकी विजय का समाचार घास-फूस पर आग लगाकर राजा को दिया गया था। हालांकि, इस संबंध में प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों से इस तरह के किसी युद्ध की या किसी सेनापति के ऐसे नामों की कोई पुष्टि नहीं होती है. इसलिए, इसे इतिहास से जोड़ना मूर्खता ही होगी. इसके अलावा, यमुना दत्त वैष्णव अपनी किताब संस्कृति संगम उत्तराखंड में लिखते हैं कि यह धारणा पूरी तरह भ्रामक है. न तो कुमाऊं के इतिहास में गैड़ी नामक किसी राजा का जिक्र मिलता है, न किसी सेनापति का और न ही गढ़वाल के राजाओं की राजवंशावलियों में खतडुवा या खतुडु नाम के किसी राजा या सेनापति का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार, इस कहानी को ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ना उचित नहीं है.

यमुनादत्त वैष्णव अपनी किताब संस्कृति संगम उत्तरांचल में लिखते हैं कि कुमाऊं के खतडुवा की तरह पश्चिम एशिया के ईसाई भी एक पर्व मनाते हैं. इसके अलावा, उत्तर अफ्रीका के हब्श देश में भी उसी महीने मशालों को जलाकर इसी तरह का पर्व मनाया जाता है.भारत से हब्श के व्यापारिक संबंधों की जड़ें काफी गहरी हैं, वहां इस पर्व को “मस्कल” कहा जाता है. जब इन सभी सांस्कृतिक धागों को एक साथ बुनते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि खतडुवा पर्व भी ऋतु परिवर्तन की खुशी में मनाया जाता है. जो सदियों से अलग- अलग संस्कृतियों में अलग अलग तरह से मनाया जाता आ रहा है. बात करें खतडु की, तो साधारण बोलचाल में खतडु या खतडों का मतलब होता है रुई से भरी हुई रजाई, कहा जाता है कि खतडुवा त्यौहार की रात से ही खतड़ों में सिमटने वाली ठंड दस्तक देने लगती है.

मध्य सितंबर से पहाड़ों में धीरे-धीरे ठंड की सिहरन शुरू हो जाती है. यही वह वक्त है जब पहाड़ों के लोग सर्दियों के कपड़े निकालकर धूप में सूखाते हैं और उन्हें पहनना शुरू करते हैं. इस तरह, यह त्यौहार बरसात की विदाई और ठंड के स्वागत का प्रतीक बन जाता है. खतडुवा के दिन, गांव के लोग अपने गौशालाओं को खास तौर से साफ करते हैं. इस दिन पशुओं को नहलाया-धुलाया जाता है और उनकी सफाई की जाती है. पशुओं को दुख और बीमारी से दूर रखने के लिए भगवान की पूजा की जाती है, मानो यह पर्व प्रकृति के साथ-साथ जीवों की भी आराधना का समय हो. कुमाऊंनी के प्रसिद्ध कवि श्री बंशीधर पाठक “जिज्ञासु” ने खतडुवा के संबंध में जो भ्रामक मान्यताएं चली आ रही हैं उन पर पर एक व्यंग्यपूर्ण कविता लिखी है.

श्री बंशीधर पाठक की कविता

“अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं,
खतड़सिंग नि मिल,गैड़ नि मिल।
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै,
जागर लगै,बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों,
भारत सुणों,खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।
स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं,
जागसर गयूं, बागसर गयूं,अलम्वाड़ कि
नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल,गैड़ नि मिल।
तब मैल समझौ
खतड़सींग और गैड़ द्वी अफवा हुनाल!
लेकिन चैमास निड़ाव
नानतिन थैं पत्त लागौ-
कि खतडुवा एक त्यार छ-
उ लै सिर्फ कुमूंक ऋतु त्यार.”