रक्षिता बोरा के सौजन्य से...
आज विश्व रंगमंच दिवस है। रंगमच जहां स्वर्ग से लेकर नरक तक, धरती के हर कोने, हर एक घटना का जीवित चित्रण होता है, जहां तालियों की गड़गड़ाहट होती है, दर्शकों की कानाफूसी और जहां फैसला होता है, एक सच्चे कलाकार की कला का, उसके आत्मविश्वाश का, उसके लोगों के दिल छू लेने के अंदाज़ का, हमारे हिंन्दू धर्म में एक ऐसे देव भी हैं, जो नाट्य शास्त्र में पारंगत हैं, और वो जाने जाते हैं देवों के देव महादेव के नाम से…
चलिए थोड़ा झांकते हैं रंगमंच की दुनिया में, बात करते हैं उत्तराखंड में रंगमंच और नाटकों के इतिहास की पहले जानते हैं आखिर क्या है रंगमंच
क्या है रंगमंच
रंगमंच दो शब्दों से बना है रंग और मंच, रंग कलाकारों के सजने से लेकर दीवारों, छतों और पर्दों पर बनने वाली कलाकृतियों को कहा जाता है और मंच होती है वो जगह जहां रंगकर्मी अपनी प्रस्तुति देते हैं, और जहां दर्शक बैठते हैं उसे प्रेक्षागार के नाम से जाना जाता है और इन सब को मिला कर बनती है रंगशाला।
गढ़वाल में नाटक का इतिहास
उत्तराखंड का इतिहास सिर्फ वीर राजाओं की कीर्ति, यहां के मंदिरों और दार्शनिक स्थलों तक ही सिमित नहीं है, ये फैला है रंगशाला तक कहानी के पात्रों के जीवित चित्रण तक, उत्तराखंड के राजाओं का भी नाटकों में काफी रूझान था, जो हमें चंद वंश के राजा रूद्र चंद द्वारा लिखे गए नाटक – ययातिचरित्र और उषरोदगया के ज़रिये साफ़ साफ़ दिखाई देता है।
‘प्रह्लाद’ माना जाता है गढ़वाल का पहला रंगमंच
समय बदला ब्रिटिश राज आया उत्तराखंड में समस्याएं बड़ी, लोगों ने आवाज़ उठाना शुरू किया और तभी उद्गम हुआ उत्तराखंड के पहले नाटककार भवानीदत्त थपल्याल का जिनका पहला लिखित नाटक था ‘जय विजय’ हालांकि इसका मंचन नहीं हो पाया था और इन्हीं का पहला नाटक जिसका मंचन भी हुआ वो था प्रह्लाद जो की सन 1913 -1914 के बीच लिखा गया और इसका मंचन करा ललित मोहन थपल्याल ने धीरे धीरे रंगमंच का रंग उत्तराखंड में चढ़ने लगा। इस दौर में कई नाटककार जगह जहग अपने नाटकों का मंचन करने लगे। इसमें से कुछ थे ‘घरजावें’ जो ललित मोहन थपल्याल द्वारा ही लिखा गया था।
‘परिवर्तन’ जो ईश्वरीदत्त द्वारा लिखा गया
अधः पतन, भूतों की खोह जो भगवती प्रसाद पांथरी द्वारा लिखा गया और इन्हीं के द्वारा सन 1938 में स्थापना की गई गढ़वाली साहित्य कुटीर की, लेकिन इन सारे नाटकों के मंचन में सिर्फ पुरुष ही प्रतिभाग किया करते थे। लेकिन पहाड़ों की नीव कही जाने वाली नारियां इन सब से अछूती कैसे रहती। सबसे पहले जीत सिंह नेगी द्वारा लिखे गए नाटक, ‘भारी भूल’ में महिलाओं ने पहली बार मंचन किया।
इसी दौर में उत्तराखंड में एक नाटक काफी पॉपुलर भी हुआ था। उस नाटक का नाम था इंद्रमणि बडोनी द्वारा रचित ‘माधो सिंह भंडारी’ इसका मंचन उत्तराखंड के इतिहास में सबसे ज्यादा बार किया गया। आज़ादी के दौर के बाद नाटक बदले, उनकी कहानियां बदली, मंचन को नए आयाम मिले और उत्तराखंड में शुरू हुआ रंगमंच का नया दौर।
राजेंद्र धस्माना के नाटकों के साथ जो थे ‘अर्धग्रामेश्वर’ और ‘ठूल खेल’, जो पहाड़ी रामायण को कहा जाता है, और जय उत्तराखंड जो – पृथक राज्य आंदोलन की मांग को लेकर बनाया गया था।
सन 1968 में उत्तराखंड के सांस्कृतिक स्तम्भ कहे जाने वाले मोहन उप्रेती के द्वारा पर्वतीय कला केंद्र भी स्थापित किया गया।
बताते हैं आपको गढ़वाल के कुछ प्रसिद्ध रंगकर्मी
- केशव ध्यानी
- मदन डोभाल
- श्रीधर जमलोकी
- विशालमणि शर्मा,
- भगवती प्रसाद चंदोला
- हरिदत्त भट्ट शैलेश
- डॉ. गोविंद चातक
- अबोधबंधु बहुगुणा
- आचार्य पुरुषोत्तम डोभाल
- दामोदर प्रसाद थपल्याल
- सुरेन्द्र सिंह रावत
- गोविंदराम पोखरियाल
- श्रीश डोभाल
कुमाऊं में रंगमंच का इतिहास
जहां गढ़वाल रंगमच के रंग में रंगा हुआ था। वहीं कुमाऊं में रंगकर्म की शुरुवात सबसे पहले नैनीताल जनपद में मानी जाती है। यही रंगमंच पूरे कुमाऊं में फ़ैल गया। बताते हैं आपको कुमाऊं के कुछ प्रसिद्द नाटक के बारे में।
पिथौरागढ़ में ‘अभागी बटुआ’ ये नाटक फ़ौज के ऊपर आधारित था। इस नाटक का एक गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ। जिसका नाम था ‘स्वर्ग तारा ज्युन्यैली रात’ इसके अलावा ‘सोने की जंजीर’, ‘उलझन’, ‘बड़े आदमी’, ‘किसका हाथ’ जैसे नाटक भी मंचित हुए।
कुमाऊं के प्रसिद्द नाटककार
- रमेश चंद्र जोशी
- हिमानी
- प्राणनाथ अरोरा
- जगदीश चंद्र पुनेड़ा
- महेन्द्र मटियानी
- पदमादत्त पंत
- डॉ. आर.सी.पाण्डेय
- डॉ. मृगेश पांडे
- शमशेर सिंह महर
- महू भाई
- प्रहलाद दास गुप्ता
अल्मोड़ा रंगमंच से जुड़ा शहर यहां के हर गली का एक न एक बच्चा तो रंगकर्मी होता ही है। इसका रंगमंच में इतिहास भी काफी जटिल रहा है। यहां के रंगमंच का इतिहास जुड़ा है विश्वप्रसिद्ध नृत्य-सम्राट उदय शंकर से इसी संस्कृति और रंगकर्मियों की भूमि पर कई नाटक लिखे गए। जिसका नाम था ‘हुडकी’,’अनमोल मोती, ‘नीच’, ‘बलिदान’,’चौराहे की आत्मा’ आदि।
अल्मोड़ा के प्रसिद्ध रंगकर्मी का नाम
- मोहन उप्रेती
- बृजेन्द्र लाल साह
- नईमा खान
- तारा दत्त सती
- लेनिन पंत
- राधे वल्लभ तिवारी
- जगन्नाथ सनवाल
- जगदंबा प्रसाद जोशी
- शंकर लाल साह
- बृजमोहन शाह
- प्रेम मटियानी
- माधो सिंह
- सुरेंद्र मेहता
- प्रताप सिंहबैरी
- चिरंजीलाल साह
- बांके लाल साह
- मनोहर जोशी
- इलाचंद्र जोशी
- भैरव तिवारी
- चंद्र सिंह नयाल
- नंदन जोशी
- भुवन जोशी
- शमशेर जंग राणा
- नवीन वर्मा बंजारा
आज कुमाऊं के अल्मोड़ा क्षेत्र में नाटक की परंपरा को जीवित रखने का श्रेय जाता है त्रिभुवन गिरी महाराज को। त्रिभुवन गिरी महाराज आज भी लोकभाषा कुमाउनी में कई नाटक लिखते हैं।
अब बात करते है नैनीताल जनपद की। नैनीताल में अंग्रेज आए और अपने साथ रंगमंच भी लेकर आए। नैनीताल में सबसे पहले प्रस्तुति हुई शेक्सपियर द्वारा लिखे गए नाटकों की। कुमाऊँ में रंगमंच के क्षेत्र में ‘उदय शंकर आर्ट सेंटर’, ‘पर्वतीय कला केन्द्र’, ‘युगमंच’, ‘श्री लक्ष्मी भण्डार’ ‘हुक्का क्लब’ आदि कई संगठनो का योगदान दिखाई देता है।
नेहरू युवा केंद्र
बात करते हैं देहरादून में नेहरू युवा केंद्र की रंगमंच को बढ़ावा देने के सपने के साथ उत्तराखंड के नेहरू युवा केंद्र स्थापित किया गया। नेहरू युवा केंद्र 90सिर्फ एक रंगमंच ही नहीं था बल्कि कई रंगकर्मियों का सपना और कला को प्रदर्शित करने का एक ज़रिया था। रंग कर्मियों की कला ने इस रंगमंच को खूब ख्याति दिलाई, रामलीला से आरम्भ होकर दून रंगमंच कोलकाता की कोरिन्यियन ड्रामा कंपनी और फिर साधुराम महेंद्रू के लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब के पारसी नाटकों तक पंहुचा।
90 के दशक में देहरादून का नेहरू युवा केंद्र मंडी हाउस के नाम से मशहूर हो गया। रंगकर्म का इतिहास जितना बताओ उतना कम और दिलचस्प भी। लेकिन आज के दौर में आधुनिक रंगशालायें खाली होते जा रही है। अब रंगशाला में दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट नहीं सुनने मिलती रंगकर्मियों का उत्साह ख़त्म होता जा रहा है। अब रंगमंच सुनसान है और उदास भी…
